पत्रकारिता और पत्रकार शब्द का जन सरोकार से गहरा नाता है। एक भी व्यक्ति का हित होता हो तो उसके लिए खुद को समर्पित कर देना, किसी पीड़ित का हक मारा जाता हो तो उसके लिए अपनी कलम से सरकार की आंखे खोलना, सरकार अथवा प्रशासन कहीं गलत हो उसको आईना दिखाना ही आजादी के बाद पत्रकारिता का मूल उदेश्य बचा था। लेकिन अब कितने पत्रकार इस उद्देश्य के लिए काम कर रहे हैं? यह एक बड़ा सवाल है। हालांकि विचारपरक एवं तथ्यात्मक खबरें भी लिखने वालों की कमी नही है लेकिन ऐसे पत्रकार महज एक दो कालम कभी कभार लिखकर इतिश्री कर लेते हैं। वहीं रोजाना अखबारों में लिखने वालों में नोकरीपेशा पत्रकार लिखना भी चाहे तो उनका लिखा कम ही छपता है । छपता भी है तो बड़े शहरों में दफ्तरों में बैठे बड़े पत्रकार आलेख के मूल उद्देश्य को ही गायब कर देते हैं।
लेकिन आजकल एक और शब्द का चलन बोलचाल की भाषा मे बढ़ा है वो है फर्जी पत्रकार । अब असली और फर्जी में फर्क क्या ? आइए हम बताते हैं। पत्रकारिता अर्थात चौथे स्तम्भ के लिए कोई कानून नही बनाए गए। न ही सुरक्षा कानून और न ही नियम नैतिकता। ऐसे में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में कुछ भी लिखा जा रहा है। लिखना गलत बात नही है, लेकिन इस लिखने की आड़ में ब्लैकमेलिंग करने वाला फर्जी कहलाता है।
अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में बिना मापदण्डो के यूट्यूब चैनल शुरू हो गए जिनका नियंत्रण विदेशी हाथों में है। अच्छा सबसे बड़ी बात यह कि जहां पत्रकार शब्द जुड़ गया वहां जांच करने वाला भी कोई नही । एक बात और असली काम मे भी गड़बड़ी करने वाले फर्जी की श्रेणी में ही आते हैं। जैसे कि एक मेरे जानकार के नाम से साप्ताहिक अखबार आरएनआई से पंजीकृत है। साप्ताहिक को रोजाना पीडीएफ बनाकर प्रकाशित करना भी पीआरबी एक्ट का उलंघन है। वहीं यूट्यूब चैनलों के माइक आईडी बनाकर घूमना भी फर्जी की श्रेणी में है।
खेर उद्देश्य नेक हो तो फर्जी को भी कोई नही छेड़ता लेकिन कुछ ऐसी बंदरियां भी पत्रकारिता में आ गयी जो पत्रकारिता की आड़ में ब्लैकमेलिंग एवं हनीट्रैप जैसे कांड अंजाम देती फिरती है। छोटे दुकानदारों से लेकर शासकीय उचित मूल्य की दुकानों तक से चंद रुपयों की खातिर, झूठ बोलकर, अड़ीबाजी कर पत्रकारिता को कलंकित कर रही है। उनके साथ कुछ लोग भी जुड़े हुए हैं। ।
आलम यह हो गया कि एक घटना में एक बंदरिया ने जिस्म फरोशी तक कर डाली। ऐसे लोग ही पत्रकारिता को कलंकित करने का काम कर रहे हैं।
जहां कुछ लोग नैतिकता के लिए पत्रकार अपने आपको भी दांव पर लगा देते है वहीं कुछ लोग पत्रकारिता की आड़ में अपना मतलब हल करने के लिए नैतिकता को ही दांव पर लगा देते है । ऐसे लोग पत्रकारिता के लिए कलंक है।