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नैतिकता का गिरता स्तर: छदम प्रोपेगंडा रचने से तैयार हुआ मीडिया से भांड तक का सफर

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(माखन विजयवर्गीय)

विश्व के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश हिन्दुस्तान के चार स्तंभों में से एक मीडिया को माना गया है। जनता और सरकार के बीच की कड़ी के रूप में कार्य करने वाली मीडिया अब अपने पथ से विमुख होती जा रही है। आम जनता के लिए बेहद ही भरोसे का यह स्तंभ आज चापलूसी एवं अराजकता को बढ़ाने में अपनी अहम् भूमिका निभा रहा है। हम इस खबर में यह भी बताएंगे कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि जिस मीडिया ने मोदी को फर्श से उठाकर अर्श तक पहुंचाया आज वही लोग विभिन्न व्हाट्सएप ग्रुपो पर फेसबुक पर यह बताते है कि "भांड मीडिया यह नही दिखाएगा" "गोदी मीडिया", "मोदी मीडिया", "भांड मीडिया" क्या है यह? क्यों इतना स्तर गिर गया? क्या पैसा ही सबकुछ है छदम पत्रकारों के लिए?

आजादी से पूर्व पत्रकारों ने अंग्रेजों के खिलाफ जिस तरह से एक पत्रकारिता का दायित्व निभाया, उस तरह से आज दायित्व निभाने वाले पत्रकार उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। मैंने कहीं पढ़ा था कि अंग्रेजी हुकूमत के समय एक अखबार के मालिक ने विज्ञापन छापा कि उसे अखबार के लिए संवाददाताओं की आवश्यकता है, जिसमें मेहनताने के रूप में लिखा था कि दो सूखी रोटी, दाल एवं अंग्रेजी हुकूमत के डंडे मिलेंगे।

एक पत्रकार होने के नाते यह जानकार बड़ी प्रसन्नता हुई कि उस दौरान आवेदन करने वाले देशभक्त पत्रकारों की उस समाचार पत्र के सामने कतारें लग गई थी। जंग-ए-आजादी में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे परमवीर चंद्रशेखर आजाद, लाला लाजपतराय, शहीदे आजम भगतसिंह एवं गणेशशंकर विद्यार्थी सहित अनेकों देशभक्तों ने उस समय अपनी कलम से भी आजादी की लड़ाई लड़ी थी।

आजादी के बाद स्वतंत्र एवं निर्भीक पत्रकारिता का चलन बदस्तूर जारी रहा। समाचार पत्रों ने देश के आम नागरिक को सरकार से जोड़े रखा। 90 के दशक तक पत्रकारों ने सरकार एवं प्रशासन को चेताकर रखा कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की तीसरी आंख उनके हर कार्यों पर पैनी नजर रखे हुए है। फलस्वरूप पत्रकारिता का चमकता सितारा उज्ज्वल होता रहा।

लेकिन इसके बाद जैसे ही इलैक्ट्रोनिक मीडिया (निजी) ने मार्किट में कदम रखा, मानो पत्रकारिता एवं आम जनमानस की उम्मीद को ग्रहण-सा लगता चला गया। टीआरपी की प्रतिस्पर्द्धा में इलेक्ट्रोनिक मीडिया यह भूलता चला गया कि वह दबे-कुचले एवं अन्याय से पीड़ित किसी की उम्मीद भरी निगाह भी है।

जब आजाद हुए तो देश के पास पैसा नही था, गरीबी, भुखमरी से निजात दिलाते दिलाते सरकारें देश को विकासशील बनाने में लगी रही, आज जो स्तिथि देश की है यह एक दो दिन का काम नही पूरे 70 बरसों में देश विश्वपटल पर दिखने लगा है। लेकिन मीडिया ने फरेब एवं झूँठ का जाल रचकर नरेंद्र मोदी को शीर्ष तक पहुंचाया आज जब वही बीजेपी के कार्यकर्ता सोश्यल मीडिया पर कहते हैं "भांड मीडिया यह नही दिखाएगा"?
क्या वजह रही? इस विषय मे में तो इतना ही कहूंगा यह स्तर मीडिया ने खुद गिराया है। पहले नैतिकता थी, देश मे एक छोटी सी घटना पर बड़े बड़े मंत्री त्यागपत्र दे देते थे, क्योंकि वह जवाबदारी समझते थे। आज सिर्फ और सिर्फ मीडिया के बिकाउपन की वजह से नैतिकता समाप्त हो गयी। किसी भी आतंकी को राष्ट्रवादी ओर राष्ट्रवादी को आतंकी बता दिया जाता है। और आम आदमी मीडिया की दलीलों में उलझकर सही को गलत ओर गलत को सही मान लेता है। जो नैतिकता मीडिया ने गिराई उसका फल भी मीडिया को ही भोगना है।

मेने 2012 में भोपाल में एक पत्रकारों की सभा मे संबोधन के दौरान कहा था संभल जाओ पत्रकारों वरना तीसरा विकल्प जनता खुद खोज लेगी। ओर वही हुआ सोश्यल मीडिया तीसरा विकल्प बना। अभी में फिर कह रहा हूँ बड़े मीडिया घरानों , अखबारों चेनलों ने नैतिकता त्याग दी इसलिए उन पर से विश्वास उठता जा रहा है। लेकिन चौथा विकल्प सिटीजन जर्नलिज्म का आया है यह आने वाले समय मे जनता की आवाज बनेगा और टीवी अखबार डब्बे में बंद हो जाएंगे।

भारत में वर्तमान युग न्यूज़ वेब पोर्टल का युग है, सिटीज़न जर्नलिस्म का युग है। लोग मिलकर नए-नए वेब पोर्टल्स बना रहे हैं, जिससे वह जनता को जानकारी दे सकें, क्योंकि न्यूज़ चैनल जानकारी नहीं प्रोपेगेंडा परोस रहे हैं। अब कुछ गिने चुने लोगों के काफी मेहनत के बाद सिर्फ मोबाइल फोन पर जानकारी मिल रही है। यह टेलीविज़न के अंत का दौर है और वाकई में जब तक चुनाव नहीं हो जाते, हमें टीवी बंद कर देना चाहिए। वरना हम भी उस प्रोपेगेंडा का शिकार हो जाएंगे, जो सत्ता हमें परोसना चाहती है, पत्रकारिता का अंत करके।